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एलएसी पर हुए भारतीय-चीनी समझौते के विषय पर मैंने कई दिनों से कोई टिप्पणी नहीं की थी, लेकिन अगर यह समझौता चाइनीज़ इन्वेस्टमेंट को अनुमति देने की शर्त पर हुआ है, तो इससे बड़ी बेवक़ूफ़ाना हरक़त कोई दूसरा प्रशासन कर नहीं सकता इस देश में. काँग्रेसियों द्वारा खिसियाहट में लगाए गए आरोपों को हम अगर एक तरफ़ रख भी दें, तो भी यह सवाल तो बनता है कि आख़िर इस पूरे एपिसोड से भारतीय सरकार ने शिक्षा कौन-सी हाँसिल की है?
अगर इस डिसएंगेज़मेंट के बाद भारतीय रुख़ में कोई भारी बदलाव देखने को नहीं मिलता है, तो चीन की एकतरफ़ा ज़ाहिराना हरक़त का हमने ज़वाब फ़िर क्या दिया है दीर्घकालिक नज़रिए से? स्वाभाविक है कि यह व्यापार तथा डिप्लोममैसी के ज़रिए ही दिया जा सकता है दोनों की बड़ी सामरिक क्षमताओं के परिप्रेक्ष्य में. ऐसे में मीडिया के एक हिस्से द्वारा इन ख़बरों को प्रसारित किया जाना कि भारत में अब चीनी इन्वेस्टमेंट को सीमाई डिसएंगेज़मेंट के मद्देनज़र जोर-शोर से अनुमति दी जाने वाली है (और अभी वो प्रक्रिया तो पूरी हुई भी नहीं है), सरकार में बैठे लोगों की दूरदर्शिता पर ही एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाता है.
हालाँकि मुझे शंका है कि ऐसी नासमझी शीर्ष नेतृत्व कभी करेगा. हाँ, प्रशासन में मलाई खाने वाली मानसिकता वाले अवश्य ऐसा सोचने की ज़ुर्रत कर सकते हैं, क्योंकि ऐसे लोग देश व समाज के हितों से अधिक अपने लघुकालिक हितों को लेकर अधिक जागरूक रहा करते हैं.